सुख दुख का अधिष्ठाता - 'मन'

मोहग्रस्त मनुष्य अज्ञान के कारण मानव-जीवन का ठीक-ठीक महत्व नहीँ समझ पा रहा है। चूँकि उसे मनुष्य शरीर मिल गया है इसलिए वह समझने लगा है कि यह तो योँ ही बिना विशेष विधान के मिलता ही रहता है। प्रतिदिन जीवोँ को इस शरीर मेँ आते देखकर उसने इसे बड़ी ही सस्ती और सामान्य प्रक्रिया मान लिया है। मानव-जीवन के प्रति इसी सस्तेपन के भाव के कारण वह इसकी उतनी कद्र नहीँ करता जितनी करनी चाहिए। तभी तो आज संसार मेँ अधिकांश मनुष्य अशांत, असंतुष्ट और दुःखी दिखाई देते हैं।

किसी वस्तु का मूल्य एवं महत्व तब समझ मेँ आता है जब वह हाथ से निकल जाती है। धन की स्थिति मेँ धनवान को उसके महत्व का ध्यान नहीँ आता। वह उसे अपने लिए बड़ी ही साधारण और सामान्य वस्तु समझता है और बिना किसी विचार के उसका उपयोग-दुरूपयोग करता है। किँतु जब वह उससे हाथ धो बैठता है, तब उसके महत्व को बार-बार याद करके रोता, कलपता और पछताता है। किसी व्यक्ति को स्वास्थय के महत्व का भान तब तक नहीँ होता जब तक वह उसे खो नहीँ देता। यह कोई बुद्धिमानी की बात नहीँ है कि मनुष्य किसी वस्तु का महत्व तब तक समझना ही न चाहे जब तक वह उसे सुलभ है। किसी वस्तु को खोकर उसके महत्व को समझने वाले अज्ञानियोँ के अधिकार मेँ पश्चाताप के सिवाय और कुछ नहीँ रह जाता।

मानव शरीर एक अमूल्य उपलब्धि है। परम पिता परमात्मा का बहुत बड़ा अनुग्रह है। मनुष्य को अपने जीवन के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। जीवन के प्रति अनुत्तरदायित्वपूर्ण दृष्टिकोण के कारण मनुष्य को अनेक प्रकार की दुःखदायी समस्याओँ मेँ उलझा रहना पड़ता है।

भाग्य, दैव, ग्रह, नक्षत्र, समाज आदि पर अपनी दयनीय दशा का दोषारोपण करना न्याय-संगत नहीँ है। जो ऐसा करते हैँ वे वास्तव मेँ स्वयं को ही धोखा देते हैँ। प्रथम तो भाग्यवाद कायरोँ और अकर्मण्योँ का दर्शन है। पुरूषार्थी व परिश्रमी पुरुष इसमेँ विश्वास करने को अपना अपमान समझते हैँ। तथापि, यदि इसके अस्तित्व को मान भी लिया जाए तो भी इसका निर्माता स्वयं मनुष्य ही है। इसी प्रकार अपनी दुःखपूर्ण स्थिति का दोष दैव को भी देना उचित नहीँ है।

अपनी प्रतिकूल परिस्थितियोँ का दोष समाज के नाम डालना भी ठीक नहीँ। समाज न तो किसी का विरोध करता है और न अवरोध। यदि कुछ करता है तो सहयोग करता है। अब यदि समाज का सहयोग प्राप्त कर सकने की क्षमता नहीँ है तो मनुष्य स्वयं ही उसका दोषी है न कि समाज।

अतएव आनंद की उपलब्धि मनुष्य के अपने हाथोँ मेँ है। वह अपने रचनात्मक चिँतन द्धारा अपने संकल्पोँ को कार्य रूप मेँ परिणत करने का प्रयास करे, तो संसार की हर वस्तु व कार्य मेँ उसे सुख ही सुख मिलता रहेगा।

इस प्रकार हम अपनी विचार शैली मेँ थोड़ा सा परिवर्तन कर लेँ तो अनुभव करेँगे कि जहाँ नीरसता, उदासी, असफलता, निष्क्रियता, आलस्य, प्रमाद, असावधानी अस्त-व्यस्तता आदि से जीवन एक भार के समान लग रहा था वहीँ हमेँ संसार मेँ सर्वत्र एक नई ज्योति का प्रकाश तथा आनंद का समुद्र लहराता दिखाई देगा। हर परिस्थिति मेँ चाहे वह अनूकूल हो या प्रतिकूल उसमेँ भी हमेँ आनंद आएगा।