मनुष्य के मूल्यांकन का मापदंड बदलेँ

मनुष्य महत्त्वाकांक्षाओँ का पुतला है और इन महत्त्वाकांक्षाओँ के कारण ही उसकी दृष्टि मेँ सफलता एक मूल्यवान उपलब्धि है। प्रत्येक मनुष्य सफल होना चाहता है, परंतु सफलता की सर्वमान्य परिभाषा नियत नहीँ की जा सकती है और इसी कारण अलग-अलग व्यक्तियोँ के लिए सफलता अलग-अलग अर्थ रखती है। कोई व्यक्ति यश और सम्मान को सफलता का आधार मानता है तो कोई धन और पद को। किसी की दृष्टि मेँ विद्या बुद्धि मनुष्य के मूल्याँकन की कसौटी है तो किसी के लिए मनुष्य का पद और प्रतिष्ठा।
उन सभी अर्थोँ के आधार पर किसी निष्कर्ष पर तो पहुँचा ही जा सकता है और यह भी हो सकता है कि वे भिन्नताएँ भी तत्त्वतः अपने मेँ एकरुपता रखती होँ। सफलता धन संपत्ति, यश, प्रतिष्ठा और विद्या बुद्धि के अनेक अर्थ रखती है। इनका समुच्चय रूप ही सफलता है। अंतर इतना सा है कि कोई किसी अंग को प्रधानता देता है और कोई किसी अंग को। विद्या - बुद्धि को प्रयोग किए बिना कौन संपत्तिवान बना है? और संपत्तिशाली होने के साथ व्यक्ति की प्रतिष्ठा बढ़ जाना भी जुड़ा हुआ है। यही बात यश, प्रतिष्ठा और विद्या विभूति के साथ भी जुड़ी है। प्रतिष्ठित व्यक्ति के पास साधारण लोगोँ की अपेक्षा अधिक संपत्ति और बुद्धि नहीँ होती परंतु विद्यावान व्यक्ति यश और धन के लिए कभी नहीँ तरसेगा।
इन सब विशेषताओँ के साथ एक बात अनिवार्य रूप से जुड़ी है कि महत्त्वाकांक्षा पूरी करने के लिए क्रियाशीलता आवश्यक है। मनुष्य जन्म से असहाय और अकिचंन पैदा होता है तथा जन्म के साथ ही वह स्थिति, क्षमता और शक्ति मेँ पूर्वापेक्षा कुछ वृद्धि करने के लिए सचेष्ट होने लगता है।
मानवीय गुणोँ से रहित लौकिक सफलताएँ और कीर्ति मनुष्य को प्रतिष्ठा तो नहीँ देती, फिर भी आमतौर पर लोगोँ की दृष्टि बाहरी सफलताओँ पर ही अधिक टिकती है। जिन्हेँ धनवान, प्रतिष्ठित और पहुँच वाला आदमी मान लिया जाता है लोग उसी के पीछे भागने-दौड़ने लगते है, उससे लाभ उठाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैँ। ये सभी उपलब्धियाँ मनुष्य की महत्वाकांक्षाओँ और उसके लिए किए जाने वाले प्रयासोँ से ही प्रसूत है।
तथाकथित सफलताओँ का एक दूसरा पक्ष भी होता है कि व्यक्ति अपने मानवीय गुणोँ और सामाजिक आदर्शोँ के प्रति कितना निष्ठावान है। सफल तो झूँठ, बेईमानी, दगाबाजी और अनीतिपूर्वक कमाने वाले लोग भी हो सकते हैँ, क्योकि इस प्रकार उनके पास धन तो इकट्टा हो ही जाता है। चरित्रहीन लोग भी सामान्य स्तर के लोगोँ से अधिक बुद्धिमान हो सकते हैँ। प्रतिष्ठा, डाकू,चोर, लुटेरोँ और अपराधियोँ को भी मिल जाती है? तो क्या इन सफलताओँ के आधार पर मनुष्य को सफल माना जाना चाहिए?
उत्तर स्पष्ट रूप से नहीँ मेँ ही मिलेगा। वस्तुतः बाहरी सफलताओँ की अपेक्षा नैतिकता और दृष्टिकोण की उत्कृष्टता के आधार पर ही मनुष्य का मूल्याँकन किया जाना चाहिए। बाहरी सफलताओँ की अपेक्षा यह अधिक पुरूषार्थ साध्य है, क्योकि कमजोर संकल्प के व्यक्ति शीघ्र ही अपने प्रयत्नोँ की निष्फलता से निराश हो जाते हैँ और उन प्रयत्नोँ को छोड़ बैठते हैँ। प्रगति के पथ पर चलने वालोँ को संघर्षोँ तथा कठिनाईयोँ का सामना करने के लिए आत्मबल ही एकमात्र उपाय रह जाता है और अनैतिक, बेईमान तथा भ्रष्ट मार्ग अपनाने वाले व्यक्तियोँ का मनोबल क्षीण तथा कमजोर ही रहता है। वे कष्ट - कठिनाइयोँ से टकराकर शीघ्र ही पस्त हिम्मत हो जाते है।
अन्य नैतिक आदर्शोँ को भी इसी आधार पर खरा और खोटा पाया जा सकता है और जो इन आदर्शोँ की ओर चलने का साहस करेगा उसे जीवन के श्रेष्ट मूल्योँ का बोध भी होगा। नीति - अनीति जैसे सभी तरीके अपनाकर संम्पन्न बनने वाले व्यक्ति को गरीब और अभावग्रस्त, बेवकूफ और मूर्ख कहेंगे, परंतु आदर्श निष्ट बनकर जिन्होने स्वेच्छेया निर्धनता का वरण कर लिया उनका दृष्टिकोण कुछ और ही बन जाता है। जिसका आनंद संम्पन्न व्यक्ति अपनी सारी संपत्ति देकर भी नहीँ उठा सकता।
महत्त्वाकांक्षाओँ के विकृत और परिष्कृत स्वरूप को यदि हम समझ सकेँ, उनका नीरक्षीर विवेक कर सकेँ और अपने मूल्याँकन के मापदंड को बदलेँ तो नैतिकता और आदर्शवादिता को ही सर्वाधिक वरेण्य पा सकेंगे, उसके लिए यश, प्रतिष्ठा और संपन्नता की कसौटियाँ बदलनी पडेंगी तथा सद्विचारोँ, सत्प्रवृतियोँ और सत्कर्मो को उनके स्थान पर प्रतिष्ठित करना होगा।